शिव नारायण सिंह देवरिया जिला मुख्यालय पर एक इंटरमीडिएट कॉलेज के संस्थापक-सर्जक प्राचार्य हैं। ‘विद्यार्थियों से...’ पुस्तकों के सभी खंडों के अवलोकन के बाद हम कह सकते हैं कि मूलतः वे एक ‘गुरुकुल’ के आचार्य हैं। शिक्षण-संस्थाओं से गुम होती जा रही प्रार्थना-सभा, बाल-सभा, ज्ञान-सभा को पुनर्जीवित व पुनर्स्थापित करने की मनोदशा का साक्षात् परिचय कराती हैं, उनकी ‘विद्यार्थियों से...’ शृंखला की पुस्तकें। विज्ञान के विद्यार्थी और अध्यापक हेने के चलते वैज्ञानिक चेतना व वैज्ञानिक दृष्टि का परिचय देते हैं शिव नारायण सिंह अपने छोटे-छोटे आख्यानों के माध्यम से। उनका पूरा परिवेश लोक मानस और लोक चेतना से आप्लावित है। यह स्वाभाविक है कि लोक के भीतर से अँखुआते एक सजग विज्ञान के विद्यार्थी के भीतर विकसित होनेवाली वैज्ञानिक चेतना प्रयोग-धर्मिता होगी ही।
श्री सिंह की प्रयोग-धर्मिता विज्ञान की प्रयोगशाला से निकलकर शिक्षा व समाज की प्रयोगशाला में अपनी वैज्ञानिक दृष्टि संपन्नता का परिचय देने को तत्पर है। ‘गुरु कुम्हार सिस कुंभ है’ की उक्ति को सार्थक बनाने की संकल्पबद्धता शिव नारायण सिंह की नियति बन चुकी है। वह संस्था और उस संस्था के सभी सदस्य सौभाग्यशाली हैं, जिस संस्था के मुखिया शिव नारायण सिंह हैं। मनसा, वाचा, कर्मणा से समेकित। प्रतिदिन शिक्षा ग्रहण करने के लिए जानेवाले विद्यार्थी प्रार्थना-सभा के समय जीवन मूल्यों को सहेजने और अपने को संस्कारित करने के साथ ‘ज्ञान क।़जोति जरै दिन राती’ की संकल्पबद्धता के साथ स्वस्थ वातावरण में ज्ञान अर्जित करते हैं। परिसर के वातावरण का सृजन शिव नारायण सिंह के जीवन की सार्थकता है। शायद बेहतर मनुष्य और बेहतर दुनिया का सृजन उनका सपना है।
आखिर वह मनोवैज्ञानिक प्रविधि कहाँ से हाथ लगी होगी शिव नारायण सिंह को, यह तो वे ही बता सकते हैं। हाँ इतना जरूर कह सकता हूँ कि लोककथाओं का आस्वाद बचपन में खूब चखा होगा। पंचतंत्र की कहानियों का पाठ गाँव की चौपालों में बैठकर जरूर सुना होगा। दादा-दादी की कहानी—‘एक था राजा, एक थी रानी’ की किस्सागोई का गँवई अंदाज कहनी या कहानी अथवा कथा खूब सुनने को मिली होगी उन्हें। यही कारण है कि ‘विद्यार्थियों से...’ के प्रत्येक खंड में शिव नारायण सिंह के कहने (कहन) का अंदाज लोक मानस में बिखरे पड़े बहुत सारे अनाम दादा-दादी, नाना-नानी या गाँव की चौपाल पर अड्डा जमानेवाले बूढ़े बाबा, दादा, काका से हासिल हुआ होगा, जिसे समय के साथ आत्मसात् कर खुद के कलात्मक अंदाज में विद्यार्थियों के बीच बाँटने में लगे हैं। उनका दिया हर आख्यान एक संदेश है। हम यह भी कह सकते हैं कि लोक चेतना का ‘अलाव’ जो बचपन से शिव नारायण सिंह के भीतर चुपचाप सुलग रहा था, उसने ही उनके भीतर से एक जलती हुई मशाल बनकर उनकी संस्था को ही नहीं, बल्कि ‘विद्यार्थियों से...’ पुस्तक के पाठकों को भी रोशनी का हकदार बना दिया है।
कुछ माह पूर्व मेरे पते पर किताबों का एक बड़ा बंडल डाकखाने से आया। बंडल के भीतर एक ही शीर्षक ‘विद्यार्थियों से...’ के छह खंड हाथ लगे। अभिनव कदम में समीक्षार्थ तरह-तरह की किताबें तो आती ही रहती हैं। खैर, बंडल खोलकर मैंने छहों किताबें एक तरफ रख दीं। इन किताबों में क्या लिखा है, यह जानने और पढ़ने की कोशिश मैंने नहीं की।
एक दिन देवरिया से मेरे दो साहित्यकार मित्र सरोज पांडेय व उद्भव मिश्र मऊ मुझसे मिलने आवास पर आ पहुँचे। बातचीत के क्रम में देवरिया से मेरे पते पर भेजी गई छह खंडों में ‘विद्यार्थियों से...’ का संदर्भ आया। ये देवरिया में शिव नारायण सिंह कौन हैं? क्या करते हैं? क्या लिखते हैं? उन्होंने बताया, शिव नारायण सिंह देवरिया के प्रेस्टिज इंटरमीडिएट कॉलेज के प्राचार्य हैं और साथ ही विज्ञान विषय के विद्यार्थी रहे हैं। कुछ बातें शिव नारायण सिंह के शिक्षण-संस्थान पर भी हुईं। पठन-पाठन, अनुशासन और परीक्षा परिणाम पर भी उन लोगों ने सकारात्मक व रचनात्मक टिप्पणी कीं। बातों-बातों में ‘विद्यार्थियों से...’ पुस्तक पर भी चर्चा हुई।
इसी क्रम में बात आगे बढ़ी तो यह बात सामने आई कि कॉलेज के खुलने पर प्रत्येक दिन प्रार्थना-सभा में प्राचार्य शिव नारायण सिंह स्वतः स्फूर्त ढंग से समय, समाज और मनुष्य की जीवन परिधि पर मौजूद किसी ज्वलंत विषय पर व्याख्यान देते हैं। उनके व्याख्यान का विषय रोज बदलता रहता है। वे व्याख्यान में इस बात को केंद्र में रखते हैं कि व्यावहारिक स्तर पर उनका वक्तव्य विद्यार्थियों के जीवन में, उनके भविष्य के निर्माण में लाभकारी साबित हो सके। बाद में अपने दिए गए व्याख्यान को शृंखलाबद्ध रूप में पुस्तकाकार ‘विद्यार्थियों से...’ नाम से प्रकाशित कराते हैं। देवरिया से उन्हीं पुस्तकों की शृंखला आपके पास आई होगी। उक्त सारी बातें जानने के बाद मेरे मन में शिव नारायण सिंह द्वारा भेजी गई पुस्तकों के प्रति उत्सुकता पैदा हुई और ‘विद्यार्थियों से...’ पुस्तक पढ़ने की इच्छा जाग्रत् हुई।
धीरे-धीरे एक-एक पुस्तक पलटता और बीच-बीच में पढ़ता चला गया। पुस्तकों के भीतर छुपी सच्चाई को जानकर मुझे घोर आश्चर्य हुआ। मुझे लगा कि जीवन की सार्थकता के लिए ये पुस्तकें प्रत्येक विद्यार्थी को पढ़नी चाहिए, साथ ही अभिभावकों को भी। पहले मैं अपनेपन से जुड़े लोगों को, बच्चों के मनोविज्ञान को समझने के लिए दो पुस्तकों को जरूर पढ़ने का सुझाव देता था।
पहली पुस्तक-जापानी उपन्यास का हिंदी अनुवाद—‘तोतो चान’ और दूसरी पुस्तक—‘थार्वियाना के बच्चों का अध्यापक के नाम पत्र’ (चेक भाषा से अनूदित)। अब मेरे हाथ तीसरी पुस्तक भी लगी ‘विद्यार्थियों से...’ जिसे मैं प्रत्येक अभिभावक व विद्यार्थी को पढ़ने की सलाह देता हूँ। एक मूल्यवान लोक-संग्रह, जिसे अपने भविष्य के प्रति सचेत हर विद्यार्थी को पढ़ना चाहिए। बेहतर मनुष्य बनने, बेहतर भविष्य बनाने, बेहतर समाज बनाने और बेहतर दुनिया का सपना देखनेवाले प्रत्येक विद्यार्थी के लिए यह पुस्तक एक जरूरी औजार के रूप में प्रयोग में लाई जा सकती है। मैंने सबसे पहले अपने घर में रक्कू, बाबू और खुशबू को यह पुस्तक पढ़ने को दी है।
आज जब मैं शिव नारायण सिंह की कृति ‘विद्यार्थियों से...’ खंड-तीन पर टिप्पणी करने बैठा हूँ। इस पुस्तक में कुल एक सौ शीर्षक हैं, जिनके माध्यम से शिव नारायण सिंह ने अपने दिए गए व्याख्यान को संकलित किया है। कुछ शीर्षक हैं—शक्तिशाली, प्रकाश, चुनौतियाँ, परोपकार, मानवता, आत्मबल, मूल्यांकन, संसाधन, अपना-पराया, सावधानी आदि बहुत से। इन विभिन्न शीर्षकों के माध्यम से जिन प्रेरणादायी विचारों का विस्तार किया गया है, उसमें प्रायः मिथकों का प्रयोग मौजूद है। उदाहरण के रूप में पहला आख्यान का विषय है—सबसे शक्तिशाली कौन?’
इस आख्यान में गौतम बुद्ध और उनके शिष्यों के बीच हुए संवाद को आधार बनाकर नीतिगत बात की गई है। भौतिक तत्त्वों से चलकर मनुष्य तक की यात्रा करते हुए समय को सबसे शक्तिशाली रूप में स्थापित किया गया है। जिसने अपने समय को पहचाना, उसका सदुपयोग किया, उसने शक्ति अर्जित की और शक्तिशाली बना।
एक संदर्भ और मैं देना चाहूँगा ‘प्रकाश’ शीर्षक से दिए गए आख्यान का। राजा जनक और याज्ञवल्क्य ऋषि के बीच हुए संवाद को आधार बनाकर भौतिक प्रकाश से अलहदा घुप्प अँधेरे में शब्द के प्रकाश को, शब्द न होने (गूँगा व्यक्ति) की स्थिति में मन के भीतर के प्रकाश को संबल बनाकर गंतव्य तक पहुँचा जा सकता है। परोक्ष रूप से इसे बुद्ध के ‘अप्प दीपो भवः’ से जोड़कर हम देख सकते हैं। विद्यार्थियों के भीतर दृष्टिबोध का संस्कार डालना शिव नारायण के आख्यानों का उद्देश्य है और वे अपने उद्देश्य में सफल हैं। इसी तरह का दृष्टिबोध मनोबल, धार, जड़ें, कार्यकुशलता, उद्यम, आजाद, परोपकार, भागीरथ प्रयास, मोह शीर्षक को पढ़कर होता है।
यदि आप शिव नारायण सिंह के बुद्धि, कौशल, चातुर्य का और बेहतरीन करिश्मा देखना चाहते हैं तो खंड-छह में ‘चुनौतियाँ’ शीर्षक आख्यान में देख सकते हैं—संवाद एक बेकार पड़े मिट्टी के ढेले और कुम्हार के बीच का है। कुम्हार से एक सुंदर कलश बनने की इच्छा जाहिर करता है मिट्टी का ढेला। सुंदर कलश बनने के लिए मिट्टी के ढेले को किन-किन चुनौतियों के बीच से गुजरना होगा, कुम्हार उसे बताता है—“तुम्हें पानी में घुलना होगा, लाठी से पिटना होगा, चाक पर घूमना होगा और फिर आवाँ में पकना होगा।” मिट्टी के ढेले को कुम्हार की शर्त मंजूर करनी पड़ती है और वह एक सुंदर कलश का आकार ग्रहण कर लेता है ‘गुरु कुम्हार सिस कुंभ’ की नसीहत देना चाहते हैं शिव नारायण सिंह अपने विद्यार्थियों को कि तुम सभी मिट्टी के ढेले के समान हो। यदि तुम्हें सुंदर कलश का आकार ग्रहण करना है तो कुम्हार (गुरु) के आदेशों पर अमल करो और अपने जीवन को सुंदर कलश बनने के सपने को साकार करो। यही तुम्हारे जीवन की सार्थकता है।
खंड-तीन में ‘आत्मावलोकन’ शीर्षक से दिए गए आख्यान को यदि हम देखें तो एक कलाकार के माध्यम व उसकी कलाकृति के माध्यम से छिद्रान्वेषण करनेवालों पर कटाक्ष किया गया और विद्यार्थियों को एक-दूसरे की कमी निकालने की प्रवृत्ति से विरत रहते हुए अपने भीतर की कमियों को दूर करने की प्रेरणा दी गई है। एक कलाकार अपनी सर्वश्रेष्ठ कलाकृति को इस टिप्पणी के साथ चौराहे पर टाँग देता है कि ‘जहाँ कमी हो, वहाँ निशान लगा दें।’ दूसरे दिन पूरी कलाकृति निशानों से पट जाती है। फिर वह दूसरे दिन अपनी दूसरी कलाकृति चौराहे पर इस टिप्पणी के साथ टाँगता है कि ‘जहाँ आपको कमी महसूस हो, उसे कृपया सुधार दें।’ अगले दिन उस कलाकृति पर कोई निशान या संशोधन नहीं मिलता और वह उसे ज्यों का त्यों अपने घर ले जाता है। इस आख्यान का निष्कर्ष है कि दूसरों में कमियाँ निकालना आसान है, पर उन कमियों को दूर करना कठिन है अर्थात् विद्यार्थियों के बीच शिव नारायण यह संदेश देना चाहते हैं कि दूसरों की बुराई मत करो, अपने भीतर की कमियों को स्वयं दूर करो। आत्मावलोकन से आदमी हमेशा सफलता की सीढ़ियों पर आगे बढ़ता है।
पुस्तक के प्रत्येक शीर्षक में नीति वचन, अमृत वचन, जातक कथाओं, पंचतंत्र की कहानियाँ, चीन की लोककथाओं की ध्वनियाँ किसी-न-किसी रूप में मौजूद हैं। हम सभी जानते हैं कि चीन की क्रांति की पृष्ठभूमि सांस्कृतिक क्रांति ने तैयार की थी। और चीन की सांस्कृतिक क्रांति की सफलता की पृष्ठभूमि में चीन की लोककथाओं का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। शिव नारायण सिंह की पुस्तक ‘विद्यार्थियों से...’ के सभी खंडों में दिए गए आख्यान भारतीय जनमानस में ऐसे बीज के रूप में मौजूद रहेंगे, जो आगे चलकर बेहतर मनुष्य, बेहतर समाज और बेहतर दुनिया के सपनों को साकार कर सकेंगे तथा भविष्य में सांस्कृतिक क्रांति का आधार तैयार करेंगे।
—डॉ. जय प्रकाश धूमकेतु
223-निजामुद्दीनपुरा,
मऊनाथ भंजन, मऊ (उ.प्र.)